Friday, August 31, 2018
Thursday, August 16, 2018
Wednesday, June 20, 2018
मैं कठिन हू,
मुझे समझना उतना ही कठिन है.. जितना भूखे का रोटी को निगलना , मुझे भुलाना , उतना ही कठिन है.. जितना खुद को भुलाना .. मुझमे कोई बात हो या ना हो, मेरी किसी बात को भूला पाना कठिन है.. बहुत कठिन है..
इसलिए मुझे समझो मत.. मेरे हो कर मुझ में अवशोषित हो जाओ.. बहुत सरल है, बहुत सरल है.. मुझे मन से समझो, या मन में समझो.. सरल है बहुत सरल है.. ना समझो तो कठिन है बहुत कठिन है..
इसलिए मुझे समझो मत.. मेरे हो कर मुझ में अवशोषित हो जाओ.. बहुत सरल है, बहुत सरल है.. मुझे मन से समझो, या मन में समझो.. सरल है बहुत सरल है.. ना समझो तो कठिन है बहुत कठिन है..
Tuesday, April 3, 2018
It was me!!
Alone I sat, lost in thought profound,
Much I'd gained, or so I found,
Yet a hollow shadow did appear,
A reflection of myself, once near.
Shocked and awed, my heart did race,
No longer could I find my place,
A shadow, a whisper, a lingering dread,
I sought to peer inside my head.
Within my depths, a world revealed,
Its secrets, pain, and beauty concealed,
A window to my soul did gleam,
A paradox both sad and serene.
I was, I wasn't - a duality,
A union of worlds, in synchrony,
The essence of me, the universe aligns,
In every moment, as space and time entwines.
Saturday, March 24, 2018
में अब भी मुस्कुराती हु..
में अब भी मुस्कुराती हु,
सोच के कुछ ना कुछ हंस ही जाती हु,
मुस्कुराना कोई मजबूरी नहीं है,
प्यार जताना भी जरूरी नहीं है,
दूसरो से तो जीत लेती हु,
अक्सर अपनो से हार जाती हूँ ,
कुछ चीजें मुझे आज भी गुदगुदाती है,
शरारतें तो आज भी उतनी ही आती हैं,
अब भी माँ की डांट, पापा की छाँव में हो आती हूँ.
बस रुक सी गयी हूँ, समझदारी के जंजाल में,
मग़र कभी कभी बचपना भी दिखलाती हूँ,
बचपन के कोई डर अब, सताते नहीं है,
मगर अब जिंदगी के सच, कम डराते नहीं है..
किसी का में प्यार हू, किसी के लिए माँ भी हू,
बहू और बेटी की अदाकारी, खूब निभाती हु,
पर अक्सर अपनो से हार जाती हूँ
रोना मुझे कमजोरी सा क्यू लगता है,
दिल किसी से बांटने में डर सा लगता है,
पर होंसला कम होता नहीं, गिरती हू रोज़,
पर खड़ने से अब डर, लगता नहीं है,
में अब भी मुस्कुराती हु, बस कभी कभी अपनो से हार जाती हूँ..
सोच के कुछ ना कुछ हंस ही जाती हु,
मुस्कुराना कोई मजबूरी नहीं है,
प्यार जताना भी जरूरी नहीं है,
दूसरो से तो जीत लेती हु,
अक्सर अपनो से हार जाती हूँ ,
कुछ चीजें मुझे आज भी गुदगुदाती है,
शरारतें तो आज भी उतनी ही आती हैं,
अब भी माँ की डांट, पापा की छाँव में हो आती हूँ.
बस रुक सी गयी हूँ, समझदारी के जंजाल में,
मग़र कभी कभी बचपना भी दिखलाती हूँ,
बचपन के कोई डर अब, सताते नहीं है,
मगर अब जिंदगी के सच, कम डराते नहीं है..
किसी का में प्यार हू, किसी के लिए माँ भी हू,
बहू और बेटी की अदाकारी, खूब निभाती हु,
पर अक्सर अपनो से हार जाती हूँ
रोना मुझे कमजोरी सा क्यू लगता है,
दिल किसी से बांटने में डर सा लगता है,
पर होंसला कम होता नहीं, गिरती हू रोज़,
पर खड़ने से अब डर, लगता नहीं है,
में अब भी मुस्कुराती हु, बस कभी कभी अपनो से हार जाती हूँ..
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